Tuesday, September 26, 2017

मेरा सफर


कितनी लड़ाई और बाकी है,
न जाने कितने इम्तिहान और आने है|
हर सपने को तोड़कर वक्त आगे निकलता है
आज भी उम्मीद वही खड़ी है, बाहें फैलाये और उसके पूरे हो जाने का स्वपन देखती है|
अपने आप में बड़बड़ाती है,
तू कब आएगी

मेरी उन कई घनी रातों का सवेरा बनकर 
और कब मैं मुस्कुरा सकूंगी|
अपने को कब देखूंगी ये ख्वाब देखे रहती हूँ,
अपने से मिलने का सपना लिए रहती हूँ मैं|
मेरी उम्मीद भरी शाम को तेरा इंतज़ार है|
तू कब आएगी?

मुझे ये बताने कि कायनात ने छोड़ा नहीं है मेरा साथ 
न कभी छोड़ेगे वो आसमान के तारे मेरा हाथ| 
तुमसे मिलने की बेकरारी है सुबह 
और इस सुबह का है कब से इन आँखों को इंतज़ार|
इंतजार है उस रोज़ का जब सब लड़ाई खत्म करके सो जाऊँगी 
और ज़िन्दगी की लड़ाई जीतकर मौत को ख़ुशी से गले लगा लूंगी|
अब यही उम्मीद है ज़िन्दगी तुझसे कि तू मिला दे मुझे मेरी आखिरी उम्मीद से|




- जगीशा (मंज़िल छात्र)   


No comments:

Post a Comment