Tuesday, March 22, 2022

इंदिरा आंटी: जिंदगी के कुछ अनकहे पहलू (भाग 2)

Gulati Aunty Ji

जब आप अपने जीवन में किसी नए सफ़र की शुरुआत करते हैं, तो कैसा महसूस होता है? क्या आपका मन भी रोमांच, खुशी, डर, जिज्ञासा जैसी भावनाओं में बह जाता है? नए सफ़र के लिए सपने संजोने लगता है ?

बचपन से लड़कपन तक के खट्टे मीठे अनुभवों के बाद (इन अनुभवों को यहाँ पढ़े), इंदिरा आंटी एक नई जीवन की शुरुआत करने जा रही थीं। जी हां, वह शादी की डोर में बंधने जा रही थीं। और बात जब शादी की हो, तो हम भारतीयों के लिए शादी का वातावरण किसी त्यौहार से कम नहीं होता। कहीं सुंदर चमकीले कपड़ों की खरीदारी, तो कहीं घर को सजाने की तैयारी, कहीं ढोल-नगाड़ों की धमक, तो कहीं आतिशबाजी की चमक, कहीं स्वादिष्ट पकवानों की महक, तो कहीं रिश्तेदारों की चहल-पहल।

पर आज से तकरीबन 64 साल पहले, 8 मई 1958 , सुबह 10 बजे देहरादून में हुई यह शादी कुछ खास थी। खास इसलिए कि शादी में दूल्हे के साथ सिर्फ़ 5 बाराती आए थे और वे भी बिना किसी बाजे-गाजे या आतिशबाजी के साथ। वधू के परिवार से भी सिर्फ़ 10 सदस्य ही शामिल हुए थे। बाकी सभी रिश्तेदारों को पत्र भेजकर शादी का शुभ समाचार दिया गया और उनसे वर वधू को आशीर्वाद देने की विनती की गई।

बारातियों का स्वागत गायत्री मंत्र के साथ किया गया। शादी की सभी रीतियाँ पूरी हो जाने के बाद सुबह गुलाब जामुन,समोसों और सैंडविच का नाश्ता कराया गया। दोपहर 12 बजे तक विदाई की रस्म भी पूरी हो गई थी। दोनों ही परिवार शादी के इस पावन बंधन को बड़ी सादगी के साथ मनाना चाहते थे। शादी इतनी अध्बुध थी कि शादी मे मिले उपहारों को भी लौटा दिया गया और अब सादगी की ऐसी मिसाल हो और उसकी चर्चा न हो, भला ऐसा कैसे हो सकता है। चूंकि इंदिरा आंटी जी के ससुर देहरादून के एक जाने माने व्यक्ति थे, तो इस अनोखी शादी की खबर अखबार में भी छपी और इसके खूब चर्चे भी हुए।

शादी के बाद जब आंटी जी खान मार्किट (दिल्ली) आईं, तो उनका भव्य स्वागत किया गया। किसी भी परिवार के लिए सबसे ज़्यादा खुशी का मौका तब होता है, जब घर का आँगन बच्चों की किलकारियों से गूंजने लगता है। बच्चे सचमुच खुशियों का पिटारा होते हैं जिन्हें देखकर इंसान का हर गम छू-मंतर हो जाता है। जल्द ही, गुलाटी परिवार के आंगन में भी खुशियों ने दस्तक दी और पहले बेटे राजीव और फिर बेटी सोनिया के आने से जिंदगी और रंगीन हो गई।

गुलाटी परिवार की खुशियों में फिर अचानक एक तूफ़ान आया और उनकी दशा और दिशा दोनों ही बदल गई।

3 महीने की सोनिया एक दिन अचानक से बिस्तर से गिर पड़ी. उनके शरीर पर वैसे तो कोई चोट नहीं दिखाई दी, पर गिरने के दो हफ्ते बाद से वह अक्सर बेहोश रहने लगी। कई डॉक्टरों को दिखाने पर पता चला कि सोनिया को सिर पर ग़हरी चोट आयी है, जिसके कारण सोनिया का सिर धीरे-धीरे आकार में बड़ा होने लगा। ऐसे में सिर्फ 5 महीने की उम्र में ही उनके सिर का ऑपरेशन करवाना पड़ा।

यह तो इंदिरा आंटी की ज़िन्दगी में चुनौतियों की बस शुरुआत भर ही थी। इसी दौरान उन्हें खबर मिली कि उनकी सास की तबीयत खराब है। यह सुनकर वह ऑपरेशन के बाद सोनिया को लेकर देहरादून चली गईं।

वह दिन-रात अपनी सासू माँ की सेवा में लगी रहती थी। सोनिया की सही तरीके से देखभाल न करने की वजह से  उन्होंने सोनिया को अपनी माँ के घर भेजना शुरू कर दिया। अनजाने में लिया गया फैसला और ऊंची-नीची सड़क पर सफर करने की वजह से सोनिया के सिर पर असर पड़ा और पुरानी परेशानियाँ दोबारा शुरू हो गईं। ऐसे में, सोनिया को तुरंत टैक्सी करके देहरादून से दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल ले जाया गया,  जहाँ डॉक्टरों ने दोबारा ऑपरेशन करने की सलाह दी। आंटी जी ने दूसरे डॉक्टरों की सलाह भी ली और अपने परिवार से बात करने के बाद उन्होंने ऑपरेशन के बजाय, सोनिया का होम्योपैथिक इलाज ठीक समझा। अंग्रेजी दवा बंद करने से नन्ही सोनिया खूब रोई, फिर धीरे-धीरे उनकी सेहत में सुधार होने लगा।

“हारिये ना हिम्मत, बिसारिए न राम।”

बचपन में बोया, अध्यात्म और साहस का यह बीज सबसे मुश्किल वक्त में उनकी ताकत बनकर सामने आ रहा था। अपने गुरु पर पूरा भरोसा रखने के साथ-साथ, वे हर तरह की कोशिशों में बिना थके जी-जान से लगी रहतीं। बचपन में पहाड़ के कठोर जीवन ने उन्हें चट्टान की तरह मजबूत बना दिया था। वे सोनिया की दवाईयाँ लाने के लिए बसों में घंटों सफर किया करतीं। 27/28 साल की उम्र में जब इंसान नए-नए सपने संजोता है, आसमान छूने की चाह रखता है, इंदिरा आंटी के लिए सोनिया की खुशियाँ ही उनका एकमात्र सपना बन गया था। ऐसे में, उन्हें दिन- रात की कोई परवाह न थी। उनके हौसले को मशहूर शायर राही मासूम रज़ा का यह शेर बखूबी बयाँ करता है,

“इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई, हम न सोए रात थक कर सो गई”।

इन सबके बीच, जैसे-जैसे सोनिया बड़ी होती जा रही थीं, इंदिरा आंटी उनके भविष्य के बारे में सोचने लगी थीं। ढाई साल की सोनिया अभी चल फिर नहीं पाती थी और न ही बोल पाती थी। पर आंटी जी को पूरा भरोसा था कि स्कूल के माहौल में सोनिया काफी कुछ सीख सकती थी और दूसरे बच्चों की तरह आगे बढ़ सकती थी। जहाँ चाह, वहाँ राह। एक दिन सुजान सिहं पार्क में किसी शादी से लौटते वक्त, आंटी जी की मुलाकात दिल्ली मौंटेसरी स्कूल (मंड़ी हाउस) की प्रिंसिपल से हुई। सोनिया की पढ़ाई की बात छेड़ने पर, प्रिंसिपल उनसे घर पर मिलने के लिए राजी हो गई।

इंदिरा आंटी ने अपने परिवार को जब सोनिया के स्कूल के बारे में बताया, तो वे इसके पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि सोनिया का विकास नहीं हो सकता। 

60 साल पहले वाला भारत आज के मुकाबले काफी अलग था। उस दौर में लड़कियों को बहुत ज्यादा आजादी नहीं थी, उनका घर से बाहर निकलना भी ठीक नहीं समझा जाता था। ऐसे में आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि 27 साल की इंदिरा के लिए सामाजिक और पारिवारिक दबाव से परे अपनी बिटिया की खुशियों के लिए लड़ना कितना चुनौती भरा रहा होगा।

परिवार का विरोध और बच्चों की खुशी, इस उधेड़बुन के बीच, इंदिरा आंटी के लिए सोनिया को स्कूल भेजना कितना मुश्किल रहा होगा? परिवार का साथ न मिलने की वजह से उन्हें किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा? परिवार में मौजूद दूसरे बच्चों के मानसिक और सामाजिक जीवन पर इन घटनाओं का क्या असर पड़ रहा होगा। ये सब कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें जानने की जितनी जल्दी आपको है, उतनी ही हमें भी है।  आंटी जी ने चुनौतियां भरा सफ़र कैसे तय किया और उन्हें कैसे अपनी मंजिल मिली, यह हम अगले newsletter में जानेंगें, बने रहिए हमारे साथ।

मानसी लोधी और विपिन गौर द्वारा लिखित (Newsletter members)



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