आज हम मंज़िल की एक ऐसी स्टूडेंट के बारे में बात करेंगे जिन्हें देखकर लगता है कि निदा फ़ाज़ली साहब ने यह शेर जैसे उनके लिए ही लिखा हो। साथ ही, हम जानेंगे कि उनकी जिंदगी में ऐसा क्या है जो उन्हें एक मुसाफ़िर की तरह बिना रुके, बिना थके, चलते रहने और सीखते रहने की ऊर्जा देता है.
इस सफ़र की शुरुआत होती है साल 1935 से जब पूरे देश में जगह-जगह आज़ादी की लड़ाईयाँ लड़ी जा रही थी. पंजाब प्रांत के जालंधर शहर में जन्म हुआ इंदिरा का जिन्हें हम सब प्यार से इंदु आंटी बुलाते हैं। इदिंरा जी के पिताजी बैंक में काम करते थे और बहुत मेहनती थे। बैंकिंग के काम में, आए दिन उनके पिताजी का तबादला एक शहर से दूसरे शहर होता रहता था। इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि छोटी इंदिरा दसवीं तक आते आते देश के तकरीबन 5-6 अलग-अलग स्कूलों में पढ़ चुकी थी। अब ज़रा कल्पना कीजिए कैसा लगता होगा अगर हर साल आप एक नए स्कूल में नए दोस्तों के साथ पढ़ रहें हो। सुनने में बड़ा रोमांचक लगता है ना ? कुछ के लिए हो भी सकता है, पर कम बोलने वाली और शर्मीले स्वभाव की इंदिरा के लिए यह सफ़र इतना आसान नहीं था। जब तक उनकी किसी के साथ दोस्ती की नींव पड़ती, शहर बदलने का टाईम आ जाया करता। फिर किसी नए स्कूल में नए दोस्त बनाने की जद्दोजहद और पुराने दोस्तों को अलविदा कहने का ग़म, दोनों ही बातों ने उनके बालमन पर अपनी छाप ज़रूर छोड़ी होगी। इन सबके बावजूद भी, विरासत में मिले लगन और मेहनत के गुणों वाली छोटी इंदिरा ने कभी हार नहीं मानी।
इस सफ़र का एक पहलू यह भी था कि इस दौरान उन्हें ज़्यादातर पहाड़ों में रहने का मौका मिला, कभी मसूरी, तो कभी शिमला, कभी मंडी (हिमाचल प्रदेश), तो कभी जम्मू और कभी देहरादून। याद रखियेगा, यह आज के पहाड़ नहीं थे, बल्कि आज से तकरीबन 65-70 साल पहले के पहाड़ थे। पहाड़ के आज के हालातों को देखकर, आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय पहाड़ का जीवन कितना मुश्किल रहा होगा। आजकल की दुनिया में जहाँ स्कूल या तो आस पास ही मौजूद होते हैं या फिर स्कूल आने जाने के साधन आसानी से उपलब्ध होते हैं, इसके बिल्कुल उलट पहाड़ों में दूरदराज के स्कूलों तक का रास्ता रोज़ पैदल नापना अपने आप में पूरी शारीरिक और मानसिक कसरत हुआ करती थी। साथ ही, इसने वक्त की कद्र करना भी सिखाया। इस तरह की मुश्किलों ने इंदिरा को बचपन से ही पहाड़ जैसी चुनौतियों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था।
अंग्रेज़ी हुकूमत के उस दौर में, राजा महाराजा भी हुआ करते थे। बचपन के दिनों को याद करते हुए इंदु आंटी बताती हैं कि मंडी राजघराने की छोटी राजकुमारी के साथ खेलने के लिए अक्सर छोटे बच्चों को बुलाया जाता था। यहाँ गर्ल गाइड की जूनियर विंग (ब्लू बर्ड) के सदस्य के रूप में कई तरह की ऐक्टीविटीज़ भी कराई जाती थी, जिनमें इंदु आंटी बड़े जोश से हिस्सा लेती थी और हमेशा अव्वल रहती थी। साथ ही, इसके ज़रिए उन्होंने अपने अंदर छिपी लीडरशिप की क्वालिटी को भी निखारने का काम किया। उस दौर में विकास की रफ़्तार कितनी रही होगी, इस बात का अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि कैसे उनके मामाजी की शादी में पूरी बारात आज की तरह घोड़े या गाड़ी में न जाकर, बैलगाड़ी में गई थी। कितना रोमांचक लगता है न सोचकर ही? मेरे तो सुनकर जैसे रौंगटे से खड़े हो जाते हैं।
यह सन् 1947 का समय था, इंदु आंटी का परिवार उस वक्त जम्मू में था और वहाँ के हालात बहुत नाज़ुक थे। एक तरफ़ देश में आजाद होने की खुशी थी, वहीं दूसरी तरफ़ दंगों की दर्दनाक आवाज़ें भी अक्सर सुनाई देती थी। सड़कों पर कभी भी, कहीं भी दंगों का माहौल बन जाया करता था। ऐसे में, आंटी जी बताती हैं कि स्कूल जाते वक्त, वह हमेशा अपने साथ लाल मिर्च पाउडर और डंडा रखा करती थी, जिसको ज़रुरत पड़ने पर अपनी सुरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जा सके। परिवार के लिए, ऐसे में किसी स्थाई हल की जरूरत थी। उस समय हवाई जहाज़ों में असला-बारूद की सप्लाई जम्मू लाई जाती थी और परिवार को वापसी में ऐसे ही एक जहाज़ में दिल्ली आने का मौका मिला। हालांकि, माहौल बहुत सुखद नहीं था, फिर भी इंदु आंटी की यह पहली हवाई यात्रा अपनी 2 महीने की बहन के साथ बहुत यादगार रही। आज से तकरीबन 74 साल पहले, हवाई यात्रा कर पाना अपने आप में वाकई रोमांचक अनुभव रहा होगा।
चार बहनों में सबसे बड़ी इंदु आंटी, अपनी बहनों का ख्याल बिल्कुल माँ की तरह रखती थी। आर्य-समाजी संस्कारों के बीच पलने की वजह से उनको बचपन से ही धर्म-कर्म के कामों में भी रुचि रहती थी। होशियारपुर आने पर उनकी मुलाकात एक ऐसी महिला से हुई जिनकी आँखों की ज्योति तो बुझ चुकी थी, लेकिन उन्होंने छोटी इंदिरा के मन में गुरुवाणी के ज़रिए उस आध्यात्म की लौ को और हवा दे दी थी जिसमें वह पली बढ़ी थी। जिस उम्र में बच्चे अक्सर खेल कूद और मौज मस्ती में व्यस्त रहते हैं, इंदु आंटी दसवीं क्लास में आते आते अपने गुरू से दीक्षा ले चुकी थी और भक्ति में रम चुकी थी। उस समय लड़कियों के दसवीं क्लास में आने को लगभग शादी की उम्र मान लिया जाता था और रिश्ते ढूंढ़ने की कवायद शुरु हो जाती थी। ठीक ऐसा ही यहाँ भी हुआ, पर बड़े भाई के समझाने पर परिवार वाले थोड़े समय के लिए रुक गए।
एक बार आंटी जी का अपनी एक खास सहेली की शादी में जाना हुआ जहाँ उनकी सहेली के चचेरे भाई ने शादी के काम में हाथ बटाते देखा और मन ही मन आंटी जी को पसंद कर लिया। फिर बात आगे बढ़ाने के मकसद से, वे शादी का प्रस्ताव लेकर आंटी जी के घर पहुँचे। चूँकि लड़का अच्छा था, तो आंटी जी के पिताजी ने भी झटपट इस रिश्ते के लिए हामी भर दी। अगस्त 1957 का दिन था जब आंटी जी की सगाई तय हुई, लेकिन यह आज के दौर से बिल्कुल अलग थी। सगाई थी, पर सगाई में आंटी जी मौजूद नहीं थी। कुछ एक पारिवारिक रस्में हुई और बस हो गई सगाई। यह सब, उस समय के लोगों के आपसी तालमेल और भरोसे की एक खूबसूरत तस्वीर पेश करता है।
जैसा कि आपने देखा, सगाई कुछ ऐसे अंदाज़ में हुई जिसकी आज के ज़माने में कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। क्या उस दौर की शादी में भी कुछ अनोखा रहा होगा? बारहवीं में पढ़ने वाली, धर्म-कर्म और सेवा भाव में डूबी हुई इंदु आंटी के लिए, क्या ऐसे में शादी करना आसान रहा होगा? शांत रहने वाली इंदु आंटी की ज़िन्दगी में शादी के बाद किसी तरह के बदलाव आए होंगें?
इन सभी सवालों का जितना इन्तज़ार आपको है, उतना ही हमें भी है, तो बने रहिए हमारे साथ, इस सफ़र के हमसफ़र जो आपको याद रहेगा उम्रभर।
विपिन गौड़ द्वारा लिखित (NL Team Member)
What an inspiring journey! Thank you so much for sharing your story with us 🙏
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