अब शहर अच्छा नहीं लगता
लोग, सड़के, मकान सब कुछ नया सा था
अब हो गया कुछ बदला बदला
सड़कों पर जब चला करते थे तब
उड़ा करते थे सपनो में
जहां रुक जाया करते थे हंगामा शुरू कर देते थे
अब शहर अच्छा नहीं लगता
विधाभवन और प्रेम भवन में कोई अंतर ना था
एक दिमाग को भरता तो दूसरा दिल को
ये लंबे-लंबे कॉरीडोर में चलने में कभी थका नहीं करते थे
उछल- कूद में यूं ही समय निकल जाया करता
अब शहर अच्छा नहीं लगता
घंटों जाम में फंसे रहकर भी, पसीना
शर्ट से पोंछ लिया करता
भाग-दौड़कर भी कॉलेज कभी समय से ना पहुंचे
एक शहर के चौराहे, हवा, पानी भी बदले बदले लगते हैं
बस की सीट पर बैठकर अंजाना महसूस होता है
हजार कोशिश के बावजूद भी शहर अब गले से नीचे नहीं उतरता
अब शहर अच्छा नहीं लगता
Written by : Vikaram singh Rathor_20_Poem Session
आत्मबल
टूटने मत देना पर तुम विश्वास
टूटेंगे सपने टूटेंगे अपने
टूटने मत देना पर तुम आस
आयेंगे जीवन में कई कमज़ोर पल
तोड़ेंगे झनझोड़ेंगे कहेंगे संग चल
रहना पर तुम उस पर अटल
होगी तकदीर तभी मुठ्ठी में दोस्त
जीवन न होगा कभी विफल
आत्मबल हैं ऐसा कमल
परेशानियों की दलदल में रखे अटल-अचल
चाहते हो हर सुनहेरे कल
सहेज के रखिए आत्मबल
Written by : Muskan Singh_14_ English, Maths and Science.
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